लकड़ी का छाता ।

बरसात का मौसम था । मूसलाधार वर्षा हो रही थी । मूसलाधार वर्षा से उत्पन्न परिस्थितियों एवं संकटों को देखते हुए सरकार ने बच्चों के लिए स्कूल बंद कर रखा था । लेकिन शिक्षकों को विद्यालय में बने रहने का आदेश था, बस इसलिए सभी शिक्षक विद्यालय में बने हुए थे । चार बजते ही सभी शिक्षक विद्यालय से निकले और मुख्य सड़क पर आकर अपने-अपने सवारी का इंतजार करने लगे । कुछ बस का इंतजार कर रहे थे तो कुछ ओटो का इंतजार कर रहे थे । चुंकी वर्षा काफी तेज हो रही थी इसलिए सभी शिक्षक गण एक छोटी सी चाय की दुकान के अंदर बैठकर सवारी का इंतजार कर रहे थे। थोड़ी देर बाद जब वर्षा की गति थोड़ी धीमी हुई तो धीरे-धीरे चलते हुए विज्ञान के शिक्षक श्री देव बाबू भी पहुंचे । स्वभाव से अति विनम्र, शांतिप्रिय, मृदुभाषी परंतु विज्ञान की अनंत ज्ञान को समेटे हुए थे । एक सच्चे गुरु की तरह सभी को अच्छा सलाह देना उनके स्वभाव में था तथा विज्ञान को केवल किताबों तक सीमित नहीं रखते थे । कभी-कभी तो विज्ञान के ज्ञान के कारण उन्हें समस्याएं भी उठाने पर जाते थे । 

उस दिन भी ऐसी ही एक समस्या उनके सामने आ खड़ी हुई । सामान्य तौर पर वे अपने साथ छाता लेके चला करते थे लेकिन उस दिन शायद उनका छाता घर पर ही छूट गया था या फिर हो सकता है की छता टूट गया हो इसलिए साथ नहीं लाए होंगे । हम सभी लोग जिस छोटे से दुख चाय की दुकान में बैठकर गाड़ी का इंतजार कर रहे थे वहीं वे भी आ गए और हम सभी लोगों के बीच में बैठे तथा बातें करने लगे । बारिश इतनी हो रही थी कि दुकान से निकलते ही चंद मिनटों में लोग भींग जाते बस इसीलिए सभी लोग दुकान के अंदर से ही बार-बार बाहर झांक रहे थे कि क्या कोई गाड़ी आ रही है । लेकिन ना ही गाड़ीयां आने का नाम ले रही थी और ना ही वर्षा कम होने का । उस दिन ज्यादा वर्षा तथा तेज हवाओं के कारण शायद गाड़ियां कम चल रही थी ।

थोड़ी देर बाद देव बाबू बोले उन्हें पेशाब लगा है और पूछा लकड़ी का छाता किसी के पास है क्या ? किसी ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया क्योंकि किसी के पास लकड़ी का छाता था ही नहीं । मैंने लकड़ी का छाता वाली बात को नजरअंदाज करते हुए तुरंत अपना छाता उनकी ओर बढ़ाया तथा मेरे साथ साथ दूसरे शिक्षक-शिक्षिकाएं भी उन्हें अपना छाता देने लगे । परंतु उन्होंने लेने से इंकार कर दिया । उस समय किसी को कुछ भी समझ में नहीं आया और मुझे भी कुछ समझ नहीं आया । मैं भी सभी लोगों की तरह शांति से बैठकर गाड़ियों के आने की प्रतीक्षा करने लगा । 

थोड़ी देर में एक बस आई और सभी लोग जल्दी-जल्दी बस में चढ गए । थोड़ा-थोड़ा सभी लोग भींग भी गए ।
बस ने लगभग 15 से 20 मिनट में बस स्टैंड तक पहुंचा दिया और सभी लोग बस से उतर कर अपने अपने घर की ओर चल पड़े । लेकिन देव बाबू बाजार की ओर चल दिये और कई दुकानों में लकड़ी का छाता ढूंढा परंतु नहीं मिला । एक तरफ लकड़ी का छाता नहीं मिल रहा था और दूसरी तरफ बारिश कम होने का नाम नहीं ले रही थी । ढूंढते ढूंढते बाजार के एक किनारे में एक छाता का दुकान दिखा । वे वहां पहुंचे और दुकानदार से पूछा, भाई साहब क्या आपके पास लकड़ी का छाता मिलेगा । दुकानदार ने उत्तर दिया, हां । हां उत्तर सुनते ही देव बाबू के चेहरे पर एक अजीब सी संतोष और खुशी दिखाई देने लगी जैसे कोई विशेष सफलता अनेक प्रयासों के बाद मिलने पर होती है। उन्होंने तुरंत उस दुकानदार से एक लकड़ी का छाता खरीदा और दुकानदार को धन्यवाद दिया। छाता खरीदने के बाद वे सबसे पहले पेशाब करने गए । इस प्रकार पेशाब लगने के कारण देव बाबू लगभग 30 मिनट से जिस समस्या को झेल रहे थे उससे मुक्त हुए हो गए और फिर राहत भरे स्वरों में उन्होंने कहा अब घर चलते हैं । मैं साहित्य का छात्र होने के कारण विज्ञान के इन कारणों को तत्काल नहीं समझ पाया और उस समय मैंने कुछ भी पूछना उचित भी नहीं समझा । बस क्या था वह अपने घर की ओर निकले और हम अपने घर की ओर । लेकिन यह लकड़ी के छाते का रहस्य मेरे दिमाग में बना रहा । फिर मैंने सोचा कि अगले दिन स्कूल पहुंचने पर देव बाबू से ही मेरे मन में उठ रहे जिज्ञासा और प्रश्नों का उत्तर लूंगा ।

अगले दिन सभी शिक्षक एवं शिक्षिकाएं नियत समय पर स्कूल पहुंचे । सर्वप्रथम रोज की तरह साफ सफाई हुई फिर प्रार्थना और फिर सभी बच्चे अपने अपने वर्ग में चले गए । शिक्षक भी समय सारणी के अनुसार अपने अपने वर्ग में गए । मैं अन्य शिक्षकों के साथ कार्यालय में ही बैठा कुछ बातें कर रहा था । थोड़ी देर में देव बाबू कार्यालय से निकले और अलग जाकर एक कुर्सी पर बैठ गए । फिर क्या था मैं भी अपने जिज्ञासा को शांत करने के लिए उनके समीप के एक कुर्सी पर जा बैठा । उन्होंने सबसे पहले मुझे अपना लकड़ी का नया छाता दिखाया और कहा कि लगता है छाता का कीमत दुकानदार ने कुछ ज्यादा ले लिया। मैंने कुछ देर कुछ उत्तर नहीं दिया बस लकड़ी के छाता को देखता रहा। छाता की कीमत को लेकर उन्होंने फिर मुझसे सवाल किया । तब मैंने कहा कि मुझे नहीं पता कि लकड़ी का छाता कितने में मिलता है ? क्योंकि मेरे पास आधुनिक तकनीक से बना हुआ छाता था जिसे मेरे पिताजी ने खरीद कर मुझे दिया था । लेकिन मेरा छाता लकड़ी का छाता से सस्ता छोटा कमजोर पर लाने ले जाने में काफी बेहतर था और बाजार में आसानी से मिल भी जाता था। कुछ देर हम दोनों शांत बैठे रहे। फिर मैंने उनसे विनम्रता पूर्वक पूछा कि कल आपने मेरा छाता लेने से इनकार क्यों कर दिया था जबकि आपको पेशाब लगा हुआ था । उन्होंने उत्तर देते हुए कहा कि आजकल का छाता मुख्य रूप से स्टील टीन अथवा लोहे का बना हुआ होता है जिसमें कुछ मात्रा में प्लास्टिक का भी प्रयोग होता है । वास्तव में स्टील, टीन, लोहा आदि विद्युत का सुचालक होता है इसलिए वर्षा के दौरान बिजली कड़कने अथवा गिरने की स्थिति में इन आधुनिक छातों द्वारा बिजली को अपनी ओर खींच लेने का एक डर रहता है । जबकि लकड़ी का छाता अपेक्षाकृत ज्यादा सुरक्षित होता है क्योंकि लकड़ी विद्युत का कुचालक होता है । बस इसलिए मैंने यह आधुनिक छाता लेने से मना कर दिया था और कोई बात नहीं थी। अब मुझे अपनी सारे प्रश्नों का उत्तर मिल गया था तथा मेरी सभी जिज्ञासाएं भी शांत हो गई थी । इस प्रकार मुझे अपनी पुरानी जीवन पद्धति जो हमारे पूर्वजों द्वारा गहन चिंतन एवं अनुभवों के आधार पर स्थापित की गई थी उस पर गर्व की अनुभूति हुई। 


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